SRI GEETA YOG PRAKASH (श्री गीता योग प्रकाश)
श्री गीता योग प्रकाश
स्व. श्री बिजय शंकर पाण्डेय द्वारा रचित
गीता का पदानुवाद
INTRODUCTION OF GEETA (गीता - एक परिचय)
SREE GEETA YOG PRAKASH श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 1
श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 1
अर्जुन
विषाद योग
बहुत दिनो की बात
हुई यह बात है अमर कहानी ।
पांच हजार बरस बीते
है, फिर भी नहीं पुरानी ।।
लिया जन्म भगवान
कृष्ण ने,
धन्य हुई यह धरनी ।
युद्ध किया कौरव
पाण्डव ने,
कथा विषय यह वरनी ।। 1॥
युद्ध भूमी में ,
पाण्डव दल में, अर्जुन के कोचवान ।
सारथि र्धम निभाया
प्रभु
ने,
धन्य धन्य भगवान ।।
दुर्योधन थे कौरव
दल में,
महाबली गुणवान ।
वृद्ध पिता
धृतराष्ट्र थे उनके,
स्वामी सहज सुजान ।। 2॥
नहीं जा सके युद्ध भूमी में,
नयन बिना लाचार ।
समाचार संजय से
सुनते, और युद्ध संचार ।।
युद्ध हुआ होने के तत्पर,
अर्जुन करे विचार ।
उभय पक्ष के बीच
खडे़ हो, प्रभु से किया गोहार।।3॥
देखूँ तो है, कौन
कौन, परिचित भाई गुरु चाचा ।
कैसा युद्ध बना है अपना, जस संजय ने बॅांचा ।।
जब भगवान ने किया
खड़ा रथ, बीच सैन्य दल लाकर ।
बहुत विषाद हुआ
अर्जुन को,
अपने ही जन पाकर ।।4॥
ममताग्रस्त
दयार्द्र हुए,
अर्जुन को, शोक महान ।
तब जो कुछ कहा
प्रभु ने, वह गीता का ज्ञान ।।
यह तो रहा विषाद
योग, अर्जुन का प्रथम पुनीत ।
कृष्णार्जुन संवाद
रुप में ,
है गीता का गीत ।।5॥
हुआ समाप्त प्रथम
अध्याय
।
प्रभुवर हरदम रहे सहाय ।।
गुरुवर हरदम रहे
सहाय ।।।
SREE GEETA YOG PRAKASH श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 2
श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 2
युद्ध क्षेत्र में
खडे़ हुये हो,
यह तो समय विषम है ।
मोह कहॉं से आया
अर्जुन, अपयशदायक मन है ।।
पण्डित ज्ञानी सम
तव वाणी, मोह न मन में लाओ ।
यह न शोक का समय, करो
कर्त्तव्य,
वहीं बस ध्यावो ।। 6॥
सब थे पहले, फिर
भी होंगे, चलता चक्र पुराना ।
जो भी जन्म लिया
मरता है, नया ही बने पुराना ।।
इस तन में है आत्मा, अमर और अविनाशी ।
बसन बदलना होता
रहता, क्या मगहर क्या काशी ।।7॥
जो है निश्चित, शोक न करना,
सत्य सदा अविनाशी ।
धर्म युद्ध में
युद्ध करो हे, कीर्ति मिले अविनाशी ।।
मृत्यु -मिलन का
शोक न करना,
स्वर्ग मिलेगा तत्क्षण ।
कष्ट अगर इन्द्रिन
को होगा, सहते जाना हर क्षण ।।8॥
दुःख सुख में मन को
सम रखना, हे मेरे वरवीर ।
ये तो नित्य नही
रहते है, मत आतुर हो धीर ।।
समता में रहने वाले
को, कभी न लगता पाप ।
सांख्य योग
प्रारम्भ हुआ तो,
नाश न हो परताप ।।9॥
इसका पालन निशिदिन
करना, कर्म का बन्धन काटे ।
निर्भय सदा बना
रहता है, सत्य के हाटे बाटे ।।
कर्म नहीं कोई बल
रखता, इस समता के आगे ।
निश्चल मन जब हो
समाधि में,
स्थितप्रज्ञता जागे ।।10॥
स्थितप्रज्ञ के
क्या लक्षण है, हे प्रभुवर बतलाये।
काम-रहित, निज
आत्म पथिक,
अति तुष्ट प्रभु बतलाये ।।
जो सुख दुःख में
समचित रहता,
मन विकार नहिं जागे ।
जो परहित में आगे
रहता, अरु प्रपन्च से भागे ।।11॥
आसक्ति हो विषय के
चिन्तन, आसक्ति से काम ।
काम क्रोध की जननी
बनता, मूर्खता परिणाम ।।
मूढ़ बने तो चेत भी
भागे, ज्ञान का होवे नाश ।
मृतक समान बने नर
उस क्षण, ज्ञान का हो जब नाश ।।12॥
ज्ञान नहीं तो
भक्ति भी भागे,
भागे तुरत विवके ।
भक्ति बिना नहिं
शांति मिले,
यह परम सलोना टेक ।।
शांति बिना सुख
सपनेहु दुष्तर,
बोले सन्त अनेक ।
योगी जागे, जब जग सोवे,
यही एक पथ नेक ।।13॥
ब्राह्मी-दशा
प्राप्त नर ऐसा,
परम शांति को पाता ।
पाकर परम प्रभु पथ
पावन, मोह मार्ग नहिं जाता ।।
अन्त काल में भी
समता रख, ब्रह्मलीन हो जाता ।
मुक्त हुआ जीवन
बन्धन से, वही मोक्ष है पाता ।।14॥
प्रथम श्रवण, फिर
मनन करो हे,
सांख्य ज्ञान के खातिर ।
आत्म ज्ञान पा, लिप्त न हो मन,
जगत मोह के खतिर ।।
यही दशा जीवित
मुक्ति की, जीवित ही पा जाना ।
कर्म सभी जग का
करना हे, प्रभु संग प्रीति निभाना ।।15॥
हुआ समाप्त द्वितय
अध्याय ।
प्रभुवर हरदम रहे
सहाय ।।
गुरुवर हरदम रहे
सहाय ।।।
SREE GEETA YOG PRAKASH श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 3
श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 3
कर्म बिना नर कभी न
रहता, नर का यही स्वभाव ।
राग - व्देष संग
में रहने से, सुख क सदा अभाव ।।
जो कर्तव्य मात्र
करता है, लोभ लाभ को तजकर ।
उसका लाभ अनंत गुणा
है, रक्षक प्रभु को मजकर ।।16॥
बिना लोभ उपयुक्त
कर्म से, सदा मोक्ष अधिकारी ।
यही कर्म है कर्म -
योग, जिसकी महिमा अति भारी ।।
चंचल गति वाला मन
भागे, तू मत जाय शरीर ।
धीरे - धीरे मन को
साधो, प्रभु हरेगे पीर ।।17॥
जो जग का सब कर्म
तजोगे, पर हितार्थ सब कर्म ।
बिना कर्म बैठे
रहना भी, है भारी दुष्कर्म ।।
जनक,
कृष्ण, अवतार सभी, सब
संतो को भी देखा ।
सबने कर्म निभाया
अपना, रख आदर्श अनोखा ।।18॥
कर्मेन्द्रिय से
कर्म करे, संयमित रहे मन वशकर ।
क्या यह सुगम महा
है, इस माया प्रपंच में फंसकर ।।
क्या यह सुख -
साम्राज्य मिलेगा, बस मन को समझाये ।
नही नही यहाँ अगम
राह है, सुगम सतगुरु पाये ।।19॥
सतगुरु जी बतलाते
है, इस मन घोड़े का खूंटा ।
कैसे संध्या ध्यान
बने, जिस बिन जग का सुख रूठा ।।
बिना भेंद पाये
सतगुरु से, रहे मांग अनबूझा ।
कहाँ शांति मिल पाई
किसको, जो अनबूझे जूझा ।।20॥
आत्मज्ञान का काम दहन
का, कर्मयोग की सिध्दि।
क्या करिये अभ्यास
अगर, अज्ञात रहे वह बुध्दि।।
करी त्रिकाल संध्या
निज मन में, भक्ति ज्ञान पनपावे ।
आत्मज्ञान से ही मन
वश हो, जो सतगुरु मिल जावे ।।21॥
इसमें ही कल्याण
जगत का, इसके बिन जग सूना ।
यह मारग जो छोड़
दिया तो, दुःख सब नित - नित दूना ।।
इसके बिन परमार्थ न
जागे, स्वास्थ्य जग सुख खाये।
ताम - झाम सब कुछ
छूंछा है, सब भीतर अकुलावे ।।
हुआ समाप्त तृतीय
अध्याय ।
प्रभुवर हरदम रहे
सहाय ।।
गुरुवर हरदम रहे
सहाय ।।।
SREE GEETA YOG PRAKASH श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 4
ज्ञान
- कर्म - संन्यास योग
ज्ञान कर्म संन्यास
योंग का, वर्णन बहुत पुराना ।
पहले प्रभु ने रवि
को सुनाया,
तनय मनु ने जाना ।।
इक्ष्वाकु थे तनय
मनु के मनु ने उन्हें बताया ।
इसी भांति राजश्री
सभी, और मुनियों ने भी पाया ।।23॥
फिर से भगवन ने
अर्जुन को,
यही ज्ञान बतलाया ।
हुआ प्रचार पुन: तन
मन से, हम सबने भी पाया ।।
बार - बार के जन्म
- मरण का,
चक्र सदा चलता है ।
पर कुछ याद नही
रहता है, इससे यह खलता है ।।24॥
भगवत कृष्ण
महायोगेश्वर,
उनकी स्मृति नित नूतन ।
मायापति माया वश
में रख, करे कार्य सम्पादन ।।
माया के वश जन्म -
मरण से, रहते नर अज्ञानी ।
मायापति का जन्म दिव्य,
वे अमरात्मा के ज्ञानी।।25॥
SREE GEETA YOG PRAKASH श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 5
कर्म सन्यास योंग
कर्मयोग,
सन्यासयोंग, दोनों आपस में पूरक ।
द्वेषहीन,
इच्छाविहीन, सुख - दुःख में कभी न हो तो रत ।।
ऐसे ही सन्यासी, जिनका अविरल कर्म स्वभाव ।
अति गतिशील चक्र
में लखता, स्थिरता का भाव ।।52॥
परम लक्ष्य में
तत्परता से, सदा निरत सन्यासी ।
उसका कर्म अतुल्य
महा है, कर्मयोग अभ्यासी ।।
जैसे रवि दिन -रात
पथिक, पर कर्म न करते कोई ।
उनका अति उपकार परम,
परमार्थ न जग में गोई ।।53॥
सन्यासी का वेश धरे,
या घर ग्रहस्थ का योगी ।
ज्ञान कर्म संयास
योंग से, पूर्ण गृहस्थ का योगी ।।
धीरे - धीरे ही
बनता जायेगा, पूर्ण साधना होगी।
मन का मैल कामना
भागे, स्थितप्रज्ञता जागी ।।54॥
मन मंडल में मन
बुध्दी चित्त संग, अहंकार की दौड़ ।
त्रिकुटी के आगे
दौड़ न होती, ररंकार के ठौर ।।
इच्छाओ को रोक सके
स्थायी, मात्र विचार ।
ऐसा नही कभी हो
सकता, यह अति बली विकार ।।55॥
ध्यानाभ्यास करे दृढ़
होकर, दृढ़ता करे विचार ।
उर्ध्वगति सूरत की
होगी, हित मन मंडल पार ।।
मन लय होगा,
इच्छाओ का लय भी होवे तत्क्षण ।
रंरकार का शब्द
मिले तो, अनहद होवे रक्षण ।।56॥
संकट में भी पूरी
समता, का हो अचल स्वभाव ।
संस्कार,
इन्द्रिय - निग्रह हो, तभी बने यह भाव ।।
कठिन परिश्रम युग -
युग करिये, ध्यान सतगुरु पाये।
ज्ञान ,
कर्म, सन्यास, योंग से,
जन्म सफल हो जाये ।।57॥
सांख्य की निष्ठा
वाले करते, श्रवण मनन स्वाध्याय ।
हो परोक्ष अध्यात्मज्ञान,
अनिवार्य सदा स्वाध्याय ।।
कर्म योगियों की
खातिर भी, यह सदा रहे अनिवार्य ।
ध्यानयोंग ही पूर्ण
बनावे, प्राणायाम है वार्य।।58॥
ध्यानयोंग की
उपासना बिन, लँगड़े और अपूर्ण ।
सांख्यनिष्ठ या
कर्मनिष्ठ हो, योंग न ही सम्पूर्ण ।।
केवल घोषित कर देने
से, सत्य नही बदलेगा ।
यथार्थता नहि मिल
पाई तो, मात्र डींग क्या देगा ।।59॥
वाक्य ज्ञान में
निपुण मनुज भव पार न पावे कोई ।
बातो की,
बाती दिया से, तम निवृत्त नहीं होई ।।
सूरदास तुलसी भी कह
गये, कह गये संत अनेक ।
सुनो गुणों सब सत्य
की बाते, पथ यथार्थ ही नेक ।।60॥
सांख्ययोंग,
सन्यास योंग में, कर्मयोग
का संग ।
कुछ ना कुछ तो
अवश्य रहेगा, कुछ संग्रह का ढंग ।।
हृदय परम त्यागी
सन्यासी, तब कर्तव्य करेगा ।
कर्मयोग में कर्म
त्याग का, तब भवतव्य बनेगा ।।61॥
सब कर्मो में बना
अकर्मी, फल कर्मो का त्याग ।
ध्यानोपासन साधन
करके, ही समत्व तब जागे ।।
ऐसे मुनि को मोक्ष
मिलेगा, होता नही विलम्ब ।
मन तन वचन अलिप्त
बनेगा, तत्व ज्ञान अवलम्ब ।।62॥
जैसे जल कमल रहे,
जग पाप नही लगता है ।
आत्म शुद्धि हित
साधन कर, ब्रह्मार्पणं कर देता है ।।
समतावान
कर्मफल त्यागी, परम शान्ति है पाता ।
और अयोगी बंधन में
रह, मुक्त नही हो पाता ।। 63॥
नौ छिद्रों की तन
नगरी में, संयम करे अकर्मी ।
रहे कर्मरत,
राग न फल में, कर्मयोग का धर्मी ।।
आत्मज्ञान में
पूर्ण बने, वह महा ब्रम्ह सुख भोगी ।
मन को वश कर,
इन्द्रिय सुख से ऊपर उठता योगी ।। 64
इन्द्रिय सुख के बाह्य
- भोग में, लिप्त बने क्यों योगी ।
परमानन्द परम सुख
पाकर, पावे क्यों सुख - रोगी ।।
केवल बुद्धि शक्ति
से यह, निर्लिप्त दशा नहि सम्भव ।
पूर्ण रूप अज्ञान
नष्ट हो, आत्मज्ञान से सम्भव ।।65॥
आत्मतेज के
सूर्यज्ञान से, प्रभु दर्शन होता है ।
आत्मा से ही
परमात्मा का, ज्ञान सुलभ होता है ।।
ऐसे प्रभु का दर्शन
कर, सब पाप नष्ट हो जाते ।
तन्मय हो परमात्म
परायण, मुक्त दशा को पाते ।।66॥
समदर्शी वह बन जाता
है जग, जग के व्यवहार ।
उंच नीच सबमें समता
पा, विजय करे संसार ॥
उसका जीवन निष्कलंक
ब्रह्ममय, ब्रह्म में ही लीन ।
या अक्षय आनन्द, जगत् में कभी बने मलीन ।। 67 ।।
विषयों की आसक्ति न
कराये, सुख दुःख का संसार ।
अन्तर में ही पा जाता
है, विपुल ज्ञान भण्डार ॥
आदि अन्त है विषय
भोग का, चतुर नहीं रत होता।
पाता है निर्वाण
ब्रह्म, वह जीवित मुक्त हो जाता ॥ 68॥
सत्य अहिंसा
ब्रह्मचर्य,
अस्तेय और अपरिग्रह।
यम के पाँच अंग है
ये, बतलाते योगी साग्रह ॥
शौच और सन्तोष
तपस्या ईश-भक्ति स्वाध्याय ।
ये हैं पाँच नियम
कहलोत विज्ञ सभी बतलाये ॥ 69॥
यम अरु नियम का
पालन हो, और विषय भोग से भागे।
भौहौं मध्य दृष्टि
कर, स्थिर प्राणवायू को साधें।।
प्राणायाम को गति सम
करके, इंद्रिय मन बुद्धि वश हो।
ईच्छा अरु भय क्रोध रहित हो,
साधन हो सर्वश हो ।।70॥
ऐसा मननशील मुनि हरदम, मुक्त बना रहता है।
रहता यज्ञ तपस्या
भोगी, सबका हित करता है।।
सब लोकों में महाप्रभु - परमात्म,
की कर पहचान।
परम शान्ति को
प्राप्त कर, वह योगी विज्ञ महान् ॥ 71॥
कतिपय साधक पूरक - कुंभक
के साधन को साधें।
प्राण अपान वायु सम
करने, ध्यान क्रिया को साधें।
किन्तु निरापद नहीं
क्रिया यह, क्यों खतरा ले मोल।
दृष्टि रखे मौहों
के मध्य में दृष्टियोग अनमोल ॥ 72॥
इससे भी निरुद्ध
होता है , प्राणों का स्पन्दन ।
यही निरापद साधन है,
अति सुलभ युक्ति सम्पादन ॥
युक्ति न जाने
इसमें भी भी तो, नयन वक्र हो जाये ।
दृष्टि नहीं नयनों
का गोला, बस सतर्क हो जाये ॥73॥
एक विन्दुता मन
दृष्टि की, चित्त को वृति समेटे।
चेतन सुरत ऊर्ध्वगति
होवे, अरु समत्व सब प्रगेट ।।
स्थित प्रज्ञता, सांख्यज्ञान,
और कर्मयोग हो पूर्ण ।
आत्म दरश हो ब्रह्म दरश हो,
अवलम्बित सम्पूर्ण ॥ 74॥
आकर्षण का केन्द्र
कृष्णा है, आकर्षण ही राधा।
आकर्षण है परम
ब्रह्म में, जीव है राधा आधा। ॥
आधा जब मिल जाय
पूर्ण से, खत्म हुई सबब बाधा।
पारस ब्रह्म दरश
परसन से बने न सोना आथा ॥ 75॥
हुआ समाप्त पंचम
अध्याय।
प्रभुवर हरदम रहे सहाय।।
गुरुवर हरदम रहे सहाय ।।।