SREE GEETA YOG PRAKASH
श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय - 5
कर्म सन्यास योंग
कर्मयोग, सन्यासयोंग, दोनों आपस में पूरक ।
द्वेषहीन, इच्छाविहीन, सुख - दुःख में कमी न हो तो रत ।।
ऐसे ही सन्यासी जिनका अविरल कर्म स्वभाव ।
अति गतिशील चक्र में लखता, स्थिरता का भाव ।।
परम लक्ष्य में तत्परता से, सदा निरत सन्यासी ।
उसका कर्म अतुल्य महा है, कर्मयोग अभ्यासी ।।
जैसे रवि दिन -रात पथिक, पर कर्म न करते कोई ।
सन्यासी का वेश धरे, या घर ग्रहस्थ का योगी ।
ज्ञान कर्म संयास योंग से, पूर्ण गृहस्थ का योगी ।।
धीरे - धीरे ही बनता जायेगा, पूर्ण विरागी ।
मन का मैल कामना भागे, स्थितप्रज्ञता जागी ।।
मन मंडल में मन बुध्दी चित्त संग, अहंकार की दौड़ ।
त्रिकुटी के आगे दौड़ न होती, रंरकार के ठौर ।।
इच्छाओ को रोक सके स्थायी, मात्र विचार ।
ऐसा नही कभी हो सकता, यह अति बली विकार ।।
ध्यानाभ्यास करे द्रढ़ होकर, दृढ़ता करे विचार ।
उर्ध्वगति सूरत की होगी, हित मन मंडल पार ।।
मन लय होगा, इच्छाओ का लय भी होवे तक्षण ।
रंरकार का शब्द मिले तो, अनहद होवे रक्षण ।।
संकट में भी पूरी समता, का हो अचल स्वभाव ।
संस्कार, इन्द्रिय - निग्रह हो, तभी बने यह भाव ।।
कठिन परिश्रम युग -युग करिये, ध्यान सतगुरु पाये।
ज्ञान , कर्म, सन्यास, योंग से, जन्म सफल हो जाये ।।
सांख्य की निष्ठा वाले करते, श्रवण मनन स्वाध्याय ।
हो परोक्ष परमात्मज्ञान, अनिवार्य सदा स्वाध्याय ।।
कर्म योगियों की खातिर भी, यह सदा रहे अनिवार्य ।
ध्यानयोंग ही पूर्ण बनावे, प्राणायाम हिया वार्य।।
ध्यानयोंग की उपासना बिन, लगडे और अपूर्ण ।
सांख्यनिष्ठ या कर्मनिष्ठ हो, योंग न ही सम्पूर्ण ।।
केवल घोषित कर देने से, सत्य नही बदलेगा ।
यथार्थता नहि मिल पाई तो, मात्र ढींग क्या देगा ।।
वाक्य ज्ञान में निपुण मनुज भव पार न पावे कोई ।
बातो की, बाती दिया से, सम निवृत्त नहि होई ।।
सूरदास तुलसी भी कह गये, कह गये संत अनेक ।
सुनो गुणों सब सत्य की बाते, पथ यथार्थ ही नेक ।।
सांख्ययोंग, संयासयोंग में, कर्मयोग का संग ।
कुछ ना कुछ तो अवश्य रहेगा, कुछ संग्रह का ढंग ।।
हृदय परम त्यागी सन्यासी, तब कर्तव्य करेगा ।
कर्मयोग में कर्म त्याग का, तब भवतव्य बनेगा ।।
सब कर्मो में बना अकर्मी, फल कर्मो का त्याग ।
ध्यानोपासन साधन करके, ही समत्व तब जागे ।।
ऐसे मुनि को मोक्ष मिलेगा, होता नही विलम्ब ।
तनमन वचन अलिप्त बनेगा, तत्व ज्ञान अवलम्ब ।।
जैसे जल कमल रहे, जग पाप नही लगता है ।
आत्म शुद्धि हित साधन कर, ब्रम्हार्पण कर देता है ।।
समतावान कर्मफल त्यागी, परम शान्ति है पाता ।
और अयोगी बंधन में रह, मुक्त नही हो पाता ।।
नौ छिद्रों की तन नगरी में, संयम करे अकर्मी ।
रहे कर्मरत, राग न फल में, कर्मयोग का धर्मी ।।
आत्मज्ञान में पूर्ण बने, वह महा ब्रम्ह सुख भोगी ।
मन को वश कर, इन्द्रिय सुख से, ऊपर उठता योगी ।।
इन्द्रिय सुख के बह्र भोग में, लिप्त बने क्यों योगी ।
परमानन्द परम सुख पाकर, पावे क्यों सुख रोगी ।।
केवल बुद्धि शक्ति से यह, निलिप्त दशा नहि सम्भव ।
पूर्ण रूप अज्ञान नष्ट हो, आत्मज्ञान से सम्भव ।।
आत्मतेज के सूर्यज्ञान से, प्रभु दर्शन होता है ।
आत्मा से ही परमात्मा का ज्ञान सुलभ होता है ।।
ऐसे प्रभु का दर्शन कर, सब पाप नष्ट हो जाते ।
तन्मय हो परमात्म परायण, मुक्त दशा को पाते ।।
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