प्रथम योग अर्जुन विषाद का, द्वितीय सांख्य का योग ।
अमर आत्मा है नश्वरतन में,
यही सांख्य का योग ॥ 
आत्म ज्ञान करके बुद्धि जब,
स्थिरता है पाती। 
द्वंद द्वैत मिट जाते है सब, समत्वता हैं आती ॥ 76 ॥
सब दुःखों का नाश होय,
जब प्राप्त ब्रह्म निर्वाण । 
बुद्धि स्थिर होती समाधि में, यहीं शास्त्र परमाण ॥
आत्मज्ञान पूरन समाधि में, स्थितप्रज्ञ तब ही हो।
ऐसे साधक समाधि को ही, ईश्वर भी परिचित हो॥77॥
जो करता साधन विशेष, इसको समाधि की सिद्धि।
अत्यावश्यक हो जाती है,
सिद्धि लाम की विधि ॥ 
जग का सब कर्त्तव्य करें, और अनासक्त हो पूर्ण।
 सिद्धि लाम समाधि का लहकर, उत्तम गति हो पूर्ण ॥78॥
 
ज्ञान. कर्म सन्यास योग औ कर्मयोग बतलाकर। 
किया सरल समाधि का वर्णन, कर्म विराग बताकर ॥
 यह उत्तम अध्याय है छठवां,
ध्यान योग को घ्यावें । 
करें न त्याग कर्म का जग का,
मानस ध्यान लगावें ॥ 79 ॥ 
अहम् और फल आशा तजकर, बन गृहस्थ वैरागी ।
 ध्यान योग अभ्यास करें, भगवान कृष्णा के रागी ॥
 अनासक्त हो कर्म फलों में, करे कर्म वह योगी। 
शान्त और एकान्त जगह में,
ध्यान योग संयोगी ॥ 80॥ 
सिद्धिलाम जब साधन में हो, शम हो, मन का निग्रह।
अनासक्त विषयों में होना, शम बिन दुष्कर विग्रह ॥ 
योगारुढ़ परम अभ्यासी, आसक्ति - संकल्प तजे । 
नहीं असम्भव यह स्थिति है,
नित्य ध्यान जंजाल तजे ॥81॥
अपना सब उद्धार करें, नहिं अधोगति को जायें। 
मित्र है अपना जो मनजीते, जनम सुफल हो जाये ॥
 नहीं करे ऐसा तो अपना, शत्रु स्वयं बन जाये।
 जो मन जीते पूर्ण रूप से, पूर्ण शान्त बन जाये ॥ 82 ॥ 
गर्मी सर्दी सुख दुःख औ, अपमान मान का भान । 
इन्द्रिय मन को जीत सके तो, तृप्त ज्ञान विज्ञान । 
पाकर के परमात्म पदहिं, सोना मिट्टी सम जाने । 
परमात्मा का ज्ञान प्रत्यक्ष बने, तब योगी जाने ॥83॥ 
श्रेष्ठ पुरुष सम भाव धरे, नहिं शत्रु मित्र में भेद। 
योगाभ्यास करे विचार कर, मन वश कर निर्भेद ॥
 नहीं करे दिन रात कर्म कुछ, जीवन भर अभ्यास ।
 ऐसा नहीं कभी होता, बिन भोजन जीवन आश ॥ 84॥ 
नित्यकर्म, शौचादि, शयन, भोजन जीविका का अर्जन । 
समय बाँट सब कर्म करे, अभ्यास योग का अर्जन ।। 
जो कहते एकान्त ध्यान, इस युग का नहीं नियम है। 
केवल मन संयम करके, हों स्थितप्रज्ञ यह भ्रम है ।।85॥
 
जो जानें समाधि सिद्धि, वे नहीं भ्रान्ति फैलायें। 
मर्म न जानें जो जग हित का, सन्त खोजि पा जायें ॥
 होता है अध्यात्म हानि, जग-हित बन जाय असम्भव । 
बिना ज्ञान अज्ञान मिटे, बिन सत्य घरे नहिं सम्भव ॥86॥
हो समाधि में स्थित प्रज्ञता, औ समत्व तब जागे। 
कर्मयोग में सिद्धिलाम नहिं, अन्य मार्ग को पाके ।।
 कर्मयोग वाह्यान्तर का कर, सिद्ध ही शम को पायें। 
मन वश होवे पूरा जब, एकान्त योग सब ध्यायें ॥87॥
भगवन् कृष्णा, नित्यप्रति उठकर, निज स्वरूप को ध्यावें ।
रोम रोम आनन्दित हों, जब आत्म स्वरुप जगावें ॥ 
आदि गुरु गीता के प्रभुवर, अर्जुन को दें ज्ञान ।
 उससे पहले रवि ने पाया, था यह ज्ञान महान् ॥88॥
उत्तम पुरुष के आचरणों का, उत्तम जन अनुसरण करें। 
प्रभुवर जनहित रत कर्मों में, लोक लोक निज शरण करें।
प्रभुवर को कुछ कर्म न अपना, नष्ट न हों सब लोक ।
ध्यानाम्यास करें नित जमकर, बढ़े नित्य आलोक ॥89॥ 
गीता में है ज्ञान ध्यान का, श्री भगवन् के मुख से।
गाँधी और तिलक करते थे, ध्यान नित्यप्रति सुख से ॥
परमेश्वर के निज स्वरुप का, इस विधि परिचय पूरा । 
सब जीवों में व्याप्त ब्रह्म हैं, भाव हो हरदम पूरा ॥90॥
जन्म जन्म के संस्कार से, इन्द्रिय निग्रह करके । 
दीर्घ करे उद्योग उपासन, ध्यान अचल मन करके ।। 
तब जाकर बरताव बने, समता का अनध अकामी। 
अति आवश्यक मार्ग मोक्ष का, जगत् यज्ञ, जग ज्ञानी ।।91।।
 
भोगी जन का मध्य रात्रि तक, होता रंगा रंग । 
एक पहर दिन तक सोता है, चढ़े रंग का भंग। 
रात्रि शुरू होते ही सोता, संयम रत सन्यासी।
 मध्य रात्रि से ईश ध्यान कर, ईश्वर ज्ञान प्रकाशी ॥92॥
 
भोगी भूल प्रभू को अपने, जग प्रपन्च फैलावें। 
योगी जन प्रपन्च को तजकर, ईश्वर को पा जावें ॥
यही सिद्ध होता इस सबसे, योगी नियमित ध्यान करें। 
सतत् मगन जीवन भर रहकर, ऐसा योग अवश्य करें ॥93॥
भगवत्गीता तेजस्वी है, अंश महाभारत का । 
तीन काल अभ्यास योग से, भाग्य जगे भारत का ॥ 
कुछ ने यह अभ्यास किया तो, देश का चमका भाल । 
सभी सुजग अभ्यास गहें तो, होगा महा कमाल ।।94॥ 
जैसे मानव निज पात्रों की, रक्षा ही करता है। 
नहीं योग में भय कुछ मानें, यही शोक हरता है। 
चंचल चित्त को वश में करके, युक्ति से संचालें । 
सावधान योगी जन मन में, चंचलता नाहिं पालें ॥95१॥ 
परमगति नारी को मिलती, शूद्र भी सद्गति पावें। 
शान्त चित्त से योग मार्ग को, जब सत्गुरु से पावें ॥ 
भगवत गीता का यह ज्ञान, महाभारत मत भी है। 
एक मेल एकाग्र मार्ग के साधन योग्य सभी हैं।॥ 96॥ 
ध्यानयोग अभ्यास निमित्त, जो विधि गीता बतलावे ।
 देख जगह एकान्त शुद्ध, आसन पवित्र डलवायें ॥
 ऊबड़ खाबड़ जगह न हो, समतल सीधा हो बैठें । 
देह व गर्दन मस्तक भी, रख सीध में सीधा बैठें ।॥ 97॥ 
देखें नहीं “दिशाओं” को, नासिकाग्र में दृष्टि लगावें। 
परमात्म परायण मन उसका, ब्रह्मचर्य व्रती बन जावें ॥
मेरुदाड सीधा हो, अरु गति श्वास की धीमी होवे । 
इसी तरह गति करने में, मन की चंचलता खोवे ॥98॥ 
मन का चक्र बन्द होगा, परमात्म परायण गति से। 
केवल बाहर आडम्बर से, विमुख रहे इस गति से । 
ध्यानयोग बिन कर्मयोग, बन सकता  कभी न पूरा ।
स्थित प्रज्ञता दोनों से ही, काम बनेगा पूरा ॥99॥
मोक्षार्थी को ध्यानयोग और सेवां कर्म जरुरी । 
जग में सुख से रहने खातिर, सेवाकर्म जरुरी ॥ 
आध्यात्मिक सेवा भी सेवा, जगत की सेवा सेवा । 
सम्पादन सेवा करने से, प्रभू भरेंगे खेवा ॥ 100॥ 
करते नहीं घमण्ड, कर्मयोगी, निज श्रेय दिखाकर । 
वह न मुमुक्ष दिखावा जिसमें, योग मार्ग में आकर ॥ 
जो कहते निज कर्म छोड़,
अनुसरण करो पथ मेरा। 
उनको अभिलाषा अयोग्य, नहि संकट कहीं घेनेरा ॥101॥ 
अध्यात्म ज्ञान नहिं उत्तम हो,
जिस देश का मेरे भाई। 
तब सदाचार कैसे पनपे, जब भ्रष्ट बने अनुआई ॥ 
जब निति नहीं होगी समाज की, उत्तम शान्तिदायक । 
तब राजनीति कैसे बन पायेगी, उत्तम अरु व्यापक ॥102॥ 
शासन सम्हाल जन योग्य नहीं, डगमग करती है नैया। 
जब डगमग करती नाव चले,
ऊपर से ताताथैया ॥ 
जब ऐसी हालत हो समाज की, प्रकृति की आँधी आती। 
दुर्दशा, दैन्य, दारुण दानव, को बढ़ती जाती छाती ।।103।। 
सत्य और सन्तोष बढ़े, हिंसा बिन सब व्यवहार । 
सदाचार अध्यात्म ज्ञान का हो भरपूर प्रचार ॥
 तभी शान्ति साम्राज्य बने, योजना सफल सब होंगी । 
इन बातों को भूल जाँय, तो राजनीति सब ढोंगी ॥104॥ 
धन,
धरती के बंटवारे से शान्ति नहीं मिलती है। 
नहीं हुआ सन्तोष, अहिंसा, तब विधि सब गलती है ।।
सदाचार,
सत्यमय जीवन का सुख तो अनुपम है। 
इतना धन जन बढ़ा देश में, फिर भी क्या दुख कम है ।।105॥
द्रव्यहीन दुःख लेहे दुसंह अति,
सुख सपनेहुँ नहिँ पाये । 
उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुःख प्रद्श्रुति गाये ॥ 
विनय पत्रिका में तुलसी ने,
धन दुःखप्रद बतलाया ।
सदाचार समाज का चाहिये, विन सत् दुःखप्रद माया ॥106॥ 
जनता के दोनों वर्गों में,
धनी व निर्धन भाई।
सत्य, अहिंसा, सदाचार, व्यवहार मात्र सुखदाई ॥ 
केवल धन लेकर देने से,
शान्ति न हो स्थाई । 
सुमति सभी को सुख पहुंचावे, सब आपस में भाई ॥ 107॥ 
सत्य महें, निज हक पहिचानें, कभी न होय लड़ाई। 
करम परिश्रम से करने से,
मिलती जय बड़ाई ॥ 
कुमति लड़ावे, कुत्ता खावे, व्यंजन रहें छिंटाई । 
कितना कष्ट सहा जन जन ने, मगर सुमति नहि आई ॥108॥ 
बिनु सन्तोष न काम नसाहीं, काम अछट सुख सपनेहूं नाहीं । 
राम भजन बिनु मिटहि कि कामा, थल विहीन तरु कबहुँ कि जाना ।। 
तुलसीदास लिखे समुझाई, फिर भी चलती जाय लड़ाई। 
कसम नहीं गीता को खाओ,
सत्य न नाशो हे सब भाई ।।109।। 
जैसे तैसे धन कर संग्रह, सुखी न हो जीवन का विग्रह।
यह गीता का "ज्ञान" नहीं है, सत्गुरु ने समझाया साग्रह ॥ 
मन चित्त बुद्धि स्थिर जब होंगे, जब समता को प्राप्त करेंगे।
स्थित प्रज्ञता पा समाधि से,
इस रहस्य का मर्म गहेंगे ॥110॥
गाँधी भृकुटी
- मध्य बताये,
ऐसे ही समाधि सुख पाये । 
तिलक नाक की नोंक बतावें, और ध्यान का ढंग बतावें ।
ज्ञान दृष्टि बारह अंगूल पर,
नाक के आगे थिर हो जावे । 
शम्भू की मुद्रा मिल जावे, प्राणवायु भी थम्हतर जावे ।।111।।
अमा, प्रतिप्रदा, पूर्णिमा, बन्द, अर्ध और पूर्ण ।
ऐसी
दशा आँख को होवे,
लक्ष्य
नासिका अग्र ॥ 
बन्द आँख से ध्यान करे तो, विधि यह सुखद सरल है।
अन्य निरापद विधि नहिं ऐसी, आनन्दित हर पल है ॥112॥ 
जिसको जैसे भावे ध्यावे, नहीं कष्ट नयनों का पावे।
भगवन् बुद्ध बन्द कर ध्याये, सिद्ध हुये अमृत रस पाये ॥ 
पलटू
साहब, कबीर, नानक, सब सन्तों ने राह बताया। 
बन्द
आँख से ध्यान किया,
ऐसा
उनके वचनों में पाया ॥113॥ 
सहज
अवस्था हो समाधि की,
जब
पूरनता पाये। 
जैसे
चाहे ध्यान करे,
जैसे
कबीर बतलाये ॥ 
पर
साधन प्रारम्भ करे तो सत्गुरु बानी मानें। 
पलकों
को चिक डारी दिया,
यह
भी कबीर हैं गाये ।।114।।
 
नहीं
दिशाओं को देखें,
यह
भगवन् का निर्देश। 
बन्द
आँख से ध्यान करें,
यह
गीता का उपदेश ॥
एक
विन्दुता से ही होगा,
उध्र्वगति
सिमटाव । 
नहिं
परिमाण ध्येय का होगा,
और
न नयन तनाव ॥115॥
 
अति
छोटा और ब्रह्म तेज सा. छोटा विन्दु स्वरुप । 
सब
पर शासन करने वाला,
परम
पुरुष का रूप॥
नहीं
कल्पना है यह विन्दु,
यह
प्रत्यक्ष का खेल । 
शून्य
ध्यान इसको हो कहते,
सब
शास्त्रों का मेल ॥116॥ 
बुद्धिमान
मन से विषयों को,
सब
इन्द्रिन से खिचें। 
बुद्धि
सारथी के सहाय से,
चित्तः
प्रसार को खिचें॥ 
कर
एकाग्र चित्त तब उसेस,
मुख
मुस्कान निहारे। 
प्रभु
के मुख स्थिर मन हो तब,
शून्याकाश
निहारें ॥117॥
तब आकाश तजें, प्रभुवर के शुद्ध रुप को ध्यायें। 
शुद्ध रुप विन्दु तेजोमय, जस सत्गुरु बतलाये ॥ 
विन्दु के ऊपर नाद विराजे, तब अक्षर में लय हौं। 
यह अक्षर निग्शब्द परम पद,
ब्रह्म अनाशीमय हों ॥ 118 ॥ 
विन्दुध्यान नासाग्रध्यान, सब हैं समाधि के साधन ।
मोक्षलाभ, परमात्म प्राप्ति का है समाधि ही साधन ॥
स्थितप्रज्ञता हो समाधि में,
यह अबतक बतलाये । 
क्या क्या होता है समाधि में, अब प्रभुवर बतलायें ॥119॥
अहंकार जब हो निरुद्ध, ब्रह्मा में चित्तवृत्ति लय हो।
संप्रज्ञात समाधि यही है, अतिशय ध्यान उदय हो । 
समी वृतियाँ ब्रह्मा की भी,
पूर्ण प्रशान्त हो जायें।
 असंप्रज्ञात अवस्था है यह, यह समाधि अपनायें ॥120॥
बस चैतन्य आत्मा को लख, हो समाधिलीन योगी।
निरावलम्बित यही दशा,
अभिलषित सदा मुनियों की ॥.
चारो तरफ़ ब्रह्म परिपूरन, यह कल्याण करो अनुभूति ।
परमार्थिक, विधिमुख समाधि यह, योगी जन को हो अनुभूत ॥121॥
इसके बाद न शब्द सुनें, उन्मुनी अवस्था पाकर ।
 हो जाती है देह काष्ठवत्,
योग पूर्णता पाकर ॥ 
ठण्ढ न गर्मी, सुख नहिँ दुख हो, नहीं मान अपमान । 
आत्मस्वरुप प्राप्त कर लेता, यह गीता का ज्ञान ।।122॥
 
ध्यानयोग और कर्मयोग का संग संग हो अभ्यासी। 
दोनों में वह पूर्ण दक्ष हो, स्थितप्रज्ञ सन्यासी ॥ 
बिना समाधि योगी होता है,
कच्चा और अपूर्ण । 
स्थितप्रज्ञता कभी न आवे, बिन समाधि सम्पूर्ण ॥123॥
कर्म-समाधि
बतावें कोई,
कर्मों
में तन्मयता । 
एक
तत्वता प्राप्त किये बिन,
भोग
काम नाहें मरता ॥ कर्म- समाधि विकर्म कहें, पर बन्धन कर्म न छूटे । 
ऐसे
नहीं अकर्म बने,
रहकर
अपूर्ण तन छूटे ॥124॥ 
राम
ब्रह्म परमारथ रुपा,
आविगत
अलख अनादि अनूपा। 
सकल
विकार रहित गत भेदा,
कहि
नित नेति, निरुपहि वेदा ॥ 
गोस्वामी
तुलसी की वाणी,
है
अनुभूत प्रमाण । 
सब
सन्तों की वाणी में है,
अलभ
न यह कल्याण ॥125॥ 
केवल
मन से ध्यान नहीं है,
ध्यान
शून्यगत प्रान। 
ऐसा
आन, प्रीति प्रभु पावे,  मोक्ष लाम आसान ॥ 
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई, जाय यज्ञ पाकरि तरकरई।
आम छाँह कर मानस पूजा, तजि हरिभजन न कारज दूजा ॥126॥ 
तुलसीदास
प्रत्यक्ष बताये,
मानस
पूजा ध्यान न भाये । 
मन
से ध्यान है मानस-पूजा,
शून्य
हो मन तो ध्यान कहाये ॥ 
बिन
परिमाण शून्य है विन्दू,
विन्दु
ध्यान ही ध्यान कहाये । 
निदिध्यासन
से सिद्ध करे यह,
पा
समाधि पूरनता पाये ॥127॥ 
ध्यानाम्यास
नियम से कीजे,
प्रभु
की शान्ति प्राप्त कर लीजे। 
बहुत
न खावे, नाहि उपवासी, शयन जागरण भी सम कीजे ॥ 
नपा
तुला आचरण बनावें,
दुःख
भंजन जन तब योग वो पावे। 
दीप
शिखा सम स्थिर होवे,
करे
योग नाहिं मन अकुतावे ॥128॥
चंचल मन भागेगा निश्चित, बार बार उसको लौटायें।
लौटाने का काम अनरवत, प्रत्याहार सुखद कहलाये ।।
इसी माँति मन वश में होगा, अकुताने से काम न होगा।
अपने
में सबको देखेगा,
ईश्वर
ज्ञान प्रत्यक्ष बनेगा ॥129॥
कुछ भी नहीं अदृश्य प्रभू को, योगी भी वह देख सकेगा।
प्रभु प्रत्यक्ष पा जीवन बरते, योगी भक्त समत्व लेहगा।।
अति दुष्तर मन वश में करना, ध्यान विराग से वश में करना ।
नहीं
असम्भव यह गति होती,
असफलता
से कभी न डरना॥130॥
स्वर्ग मिले कुछ ढील रहे तो, योगीगृह में जन्म मिलेगा।
पुनः ध्यान अभ्यास करेगा, परम गति पा मोक्ष मिलेगा ॥
 नाद ब्रह्म है बीज सृष्टि का, आदिनाम कहलाता इससे । 
इसको
पा हो ध्यान सार्थक,
पार
करें भव योगी इससे ॥131॥ 
नहीं
कहो यह युग नहीं,
ध्यान
योग का भाई। 
संत
अनेकों सिद्धि पा गये,
मोक्ष, परमगति पाई ॥
सतगुरु
हैं परमान सामने,
औ
संतों को वाणी ।
नहीं
तजो कल्याण परमपथ,
बनो
न आज अनाड़ो ॥ 132॥ 
योग, यज्ञ, जप, तप, सब कुछ है, इस युग में परमान ।
चतुराई से
बात कही तो,
गहो
नहीं अज्ञान ॥ 
सद्गुरु से सदयुक्ति गहो, बिन सत्गुरु अन्य अजान ।
जबतक सतगुरु नहीं मिलें, प्रभु रुप नाम का ध्यान ॥133॥
सदा
सदाचारी सत्गुरु हो,
हो
गीता का ज्ञान । 
विनय, नम्रता रखनी होगी, तजकर सब आभिमान ॥
नयन
नहीं चंचल होते हैं,
हरदम
प्रभु में ध्यान । 
कृपा
करें ऐसे सतगुरु तो,
हो
महान् कल्यान ॥134॥ 
जनम जनम योगी रत रहेते, धबड़ाने से काम न होगा।
धीरे धीरे सब सबकुछ होगा, सद्गति का परिणाम मिलेगा ॥ 
कुछ दिन में ही भाग गये तो, वर्षों का भी खेल नहीं है।
जनम सवारth अपना कर लें, चंचलता से मेल नहीं है ॥135॥
हुआ
समाप्त छठवाँ अध्याय । 
प्रभुवर
हरदम रहें सहाय ॥ 
गुरुवर
हरदम रहें सहाय ।।
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