श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 10
विभूति योग
विभूतियों का वर्णन सुन्दर, करते प्रभुवर अपने।
करें नित्य अभ्यास योग तो, आती हैं सब अपने॥
यह तो अलौकिक शक्ति महा, प्रभुवर का है वरदान।
अष्ट सिद्धियां कहते इनको, आठ ही हीं परधान ॥221॥
आणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति और प्राकाम्य ।
और ईशित्व वशित्व कहावें, भक्त को हो नहिं काम्य ॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई, बुद्धिहिं लोभ दिखावहीं आई।
तुलसीदास कहे समुझाई, तरो पाइ प्रभु अनादि भाई।
छूटे पाप, परम अधमाई, जब चित चरन अजन्मा पाई ॥
अवतारी, सिद्धन की छाया, सुनो सिद्धियाँ है सब माया ।
परम भक्ति ही परम लाम है, माया पाया तो क्या पाया ॥223॥
बुद्धि ज्ञान और क्षमा सत्य, सुख दुःख भय और अहिंसा।
इन्द्रिय निग्रह, अमूढ़ता और सत्य अभय तप हिंसा ॥
जन्म, मृत्यु, संतोष व समता, यश, अपयश का भाव ।
दान-भाव उत्पन्न जीव में, प्रभु से जन्मे भाव ॥224॥
समी चराचर औं विशेष संग, बनी सभी यह सृष्टि।
सबकी रचना प्रभुवर करते, रची हुई है सृष्टि।
परमात्मा परधाम ब्रह्म हैं, दिव्य पुरुष अविनाशी ।
परम पवित्र अनादि प्रभु हैं. एकमात्र अविनाशी॥225॥
वे अपने ही स्वयं को जानें, सम्भव नहिं सब वर्णन ।
आदि मध्य और अन्त जीव के. प्राण जीव के वर्णन ॥
ज्योति पुन्ज में सूर्य प्रभू हैं, रुद्रगणों में शंकर ।
विद्या में अध्यात्म ज्ञान हैं. तेज का अंश भयंकर ॥226॥
सब विभूति, लक्ष्मी प्रभाव सब, ज्ञानवान् के ज्ञान ।
वासुदेव वृष्णिकुल वाले, जन्मे प्रभु से जान ॥
परमात्मा की विभूतियों का वर्णन औ विस्तार ।
एक अंश में अनन्त लगता, विद्यमान संसार ॥227॥
वृष्णिवंश का नर तन धारी, स्थूल सगुण वह रूप।
अपने थे परमात्म भाव में, था विभूति नर रुप ।
परमात्मा का अंश रूप जीवात्म, प्रभु का भाव ।
अज अविनाशी कहा कृष्ण ने, गीता का यह भाव ॥228॥
एक अंश की सृष्टि बताकर, अनन्तग बतलाया।
किसी रूप में चाहे जो हो, पूर्ण न कभी समाया ॥
वृष्णिवंश में जन्म हुआ था, वासुदेव के रूप ।
श्री बलराम बने हलधर थे, नहीं कृष्ण अनुरुप ॥229॥
जिनका तेज महा बन पाया, उनने प्रभु विभूति को पाया।
कृष्णा और बलराम बन्धु थे, पर प्रभुता बस कृष्णा ने पाया ॥
जो थे देव देवतागण के, परम सनातन नारायण ।
अंशरूप जा मिले उन्हों में, वासुदेव नर-नारायण ॥230॥
विभूतियों का अन्त नहीं है, कौन सकेगा जान ।
अपना तन मन औ जीवन है, इनका है परिमान ॥
जितना जीवन सार्थक कर लें, जो विभूतियां पालें ।
क्षत क्षन जीवन रतन बना लें, सत्गुरु को अपना लें॥231॥
हुआ समाप्त दशम् अध्याय ।
प्रभुवर हरदम रहें सहाय ॥
गुरुवर हरदम रहें सहाय ।
No comments:
Post a Comment