अध्याय- 8
अक्षर ब्रह्मयोग
तन के साथ अनाशी रहता, आत्मतत्व हर तन में।
उससे उच्च ब्रह्म परमाक्षर, बँधा नहीं जो तन में।
तन से बंधी शरिरी आत्मा, यह तो है अध्यात्म ।
सव यज्ञों के अधिपति हैं, सर्वत्र व्याप्त परमात्म ॥153॥
प्राणों को उत्पन करे, व्यापार कर्म कहलाता ।
नाशवान् रूप इस जग में, है अधिभूत कहाता।
नाशवान तन का चेतन, अधिदैव पुरुष कहलाता ।
जीवन में जिसमें मन रत हो, अन्तकाल भी घ्यावे ।
जो सोमेरत वह तन को त्यागे उसमें ही मिल जावे ॥
मृत्युकाल हो विकट महा, अतिकष्ट अचेत बनावे ।
जोवन भर जो ध्यानयोग में, प्रभु सुमिरत भर पावे ।।155॥
जीवन भर तन कर्म करे, मन भजन करे लवलीन।
जीवन भर संयमति रहे, एकान्त ध्यान में लीन ॥
जीवन मुक्ति बने अवश्य, वह परम प्रभू को पाता।
अन्तकाल मी प्रभु को सुमिरे, उनमें ही मिल जाता ॥156॥
चित्तवृतियों को अवरोधे, अभ्यास नित्य कर पावे ।
हो एकाग्र परमप्रभु पावे, जीवित मुक्त हो जावे।
सर्वज्ञ सुशासक पालक, अणु से अणु स्वरुप को ध्यावे।
ज्योतिविन्दु का ध्यान कर, वह परम पुरुष को पावे ॥197॥
कर्मयोग केवल जो करता, ध्यानयोग नहिं पावे ।
मरणकाल में मुक्ति न पाता, पुनि पुनि तन में आवे ॥
सो सब करम धरम जारि जाऊ, जह न राम पद पंकज भाऊ।
यह तुलसी की समुचित बानी, ध्यानयोग परताप प्रभाऊ ॥158॥
परमाक्षर परमात्म को ध्यावें, नित सन्यासी ज्ञानी ।
ब्रह्मचर्य का पालन करते, इन्द्रिय निग्रह जानी ॥
योग हृदय मस्तक में अपने, प्राण करें वे स्थिर ।
पा समाधि व तुरीय अवस्था, ॐ भजें वे सुस्थिर ॥159।।
इस प्रकार प्रभु को भजते, वह परमगति है पाता।
यह तो है निर्वाण ब्रह्म, वह सुख से जग से जाता ॥
ऐसे गति की आकांक्षा हो, योग हृदय अपनाये ।
जन्म मरन का चक्र खत्म हो, परमप्रभू को पाये ॥160॥
ब्रह्मलोक अरु लोक अन्य सब, हो विनष्ट फिर बनते।
दो हजार युग बीते तब तो, निशि दिन ब्रह्म के बनते ॥
व्यक्त सृष्टि, अव्यक्त प्रकृति से, दिन आये बन जाती।
निशा सृष्टि को नष्ट करे, वह पुनि अव्यक्त हो जाती ॥161॥
इस अव्यक्त प्रकृति से होते, अन्य और भी भाव ।
उन सबसे भी परे प्रभू हैं , परमधाम निज ठाँव।
इसको पाकर जन्म न ले, पुनि पुनि कोई भी प्राणी ।
यह अविनाशी परम अवस्था, जीव परम कल्याणी ॥162॥
शुक्ल पक्ष में. छः मासों में, जब हो रविवर उत्तरायण ।
दिन हो, अग्नि की ज्वाला हो, तजते तन ब्रह्म परायण ।
दक्षिणायण के छः मासों में, निशि हो धुआँ हो फैला।
चन्द्रलोक आकर पुनि जन्मे, ले कर्मयोग का थैला ॥163॥
जो योगी नित ध्यान करें, उनपर इसका नहिँ बन्धन ।
उनको मोक्ष अवश्य मिले, प्रभु का अति दक्ष प्रबन्धन ।
भीष्म पितामह ने तन त्यागा, उत्तरायण में जाकर।
हुआ कष्ट पर ब्रह्म न पाये, रुके स्वर्ग में जाकर ॥164॥
उत्तरायण के यदि छः थल हों. पहला कमल सहस्त्र दल ।
दूसरा त्रिकुटी, तीजा शून्य, फिर महाशून्य का हो थल॥
भंवर गुफा और सत्यलोक मिल, पूर्ण होय उत्तरायण।
नीचे के छः चक्र लखें, पुनि, पूर्ण होय दक्षिणायण ॥165॥
पहला आज्ञा, तब विशुद्ध हो, और अनाहत आये ।
मणिपूरक औ स्वधिष्ठान, फिर मूलाधार कहाये ॥
ऐसा कथन समझ में आता, उत्तरायण हरदम हो पाता ।
यह उत्तरायण तन मन्दिर का, जहाँ न सूर्य अस्त हो पाता ।।166॥
जीना मरना सभी सिखाये, ऐसे प्रभु का हम गुन गायें।
जीवन कुरुक्षेत्र है अपना, युद्ध करन का ढंग सिखाये ॥
प्रभु पथ पाकर, परम कृपाकर, नर तन सिन्धु और रत्नाकर ।
जीवन अपना सुफल बनायें, नित गीता का गीत सुनाकर ।।167॥
हुआ समाप्त अष्टम् अध्याय ।
प्रभुवर हरदम रहे सहाय ।।
गुरुवर हरदम रहे सहाय ।।।
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